पदार्थान्वयभाषाः - (त्मन्या) हे वनस्पति ! अग्नि तू ! अपने को (समञ्जन्) सम्यक् व्यक्त करता हुआ-प्रकाशित-करता हुआ (देवानाम्) देवों का (पाथः) अन्न का दाता है (हवींषि) हव्यवस्तुओं का (ऋतुथा) ऋतु-ऋतु में समय-समय पर (उपावसृज) ऊपर प्रेरित कर (वनस्पतिः) वनों का-काष्ठों का पालक अग्नि (शमिता) मेघों का शमन करनेवाला विद्युत् (देवः-अग्निः) द्युस्थान में होनेवाला अग्नि अर्थात् सूर्य (हव्यम्) होमने योग्य वस्तु को (मधुना) मधु से (घृतेन) घृत से संयुक्त को (स्वदन्तु) दूसरों को स्वाद दें। अध्यात्मदृष्टि से−मानव समय-समय पर अपने आत्मा से परमात्मा को सङ्गत करता हुआ अध्यात्म अन्न का सम्पादन करे, पुनः भोज्य ओषधियों का स्वामी अग्नि रोगों का शमनकर्त्ता विद्युत् और सूर्य मधुघृत मिश्रित भोजन के समान खानेवाला होता है ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अग्नि जब काष्ठों द्वारा प्रकट हो जाती है, तो वाय्वादि देवों का अन्न मधुघृत से मिश्रित हव्य पदार्थ उनको पहुँचाता है, इससे अग्नि विद्युन्मय वायु और सूर्य मानव के लिये हितकर होकर सुख पहुँचाते हैं। अध्यात्मदृष्टिसे−मानव समय-समय पर अपने को परमात्मा से सङ्गत करता हुआ आध्यात्मिक अन्न का सम्पादन करता है, जैसे भोज्य ओषधियों का स्वामी अग्नि रोगों का शमन करनेवाला विद्युन्मय वायु और द्युस्थान का सूर्य मधुघृत मिश्रित हव्य का भक्षण करके उपकारी होते हैं ॥१०॥